#जीवनसंवाद: आंसू पर पहरेदारी!

सचिन तेंदुलकर ने जब से आंसू को नहीं छुपाने, खुलकर रोने की बात कही है, समाज में इस पर संवाद हो रहा है. सचिन ने आंसुओं को कमजोरी नहीं समझने की सलाह ही है. यह लिखते हुए प्रसन्‍नता हो रही है कि आपके प्रिय कॉलम 'डियर जिंदगी: जीवन संवाद' में हम यह बात लगभग तीन साल से करने हुए इस पर ध्‍यान देने की बात कर रहे हैं. असल में हमने अपने मन को सरल, सरस, तनाव से दूर रखने की जगह उस पर पहरे लगा दिए. आंसू को अपने भीतर रोके रखना, भीतर घुटते रहना मन पर पहरेदार बैठाने जैसा ही है.

अगर हम आंसुओं का रासायनिक विश्‍लेषण करें तो पाते हैं कि इनमें अनेक स्‍ट्रेस हार्मोन भी पाए जाते हैं. इसलिए, रोने से मन हल्‍का होता है. बारिश के बाद जिस तरह हवा साफ, मीठी, धुल जाती है, वैसे ही आंसू बहने के बाद हमारा मन हो जाता है. इसका स्‍त्री-पुरुष से कोई संबंध नहीं. यह भेद समाज से आया है. इसकी शरीर, मन से रिश्‍तेदारी नहीं है. इसलिए, आंसू थामने का कोई अर्थ नहीं. यह अपने को सजा देने का काम है.


एक छोटा सा प्रयोग कीजिए. ऐसे लोगों की सूची बनाइए जो थोड़े भावुक हैं. संवेदनशीलता से बात करते हैं. मुश्‍किल वक्‍त, भावनाएं आहत होने पर गुस्‍सा हो जाते हैं. आसानी से रो देते हैं. अब इसे ऐसे लोगों से मिलाइए जो ऐसा नहीं करते. आप पाएंगे कि रोने वाले लोग अधिक स्‍वस्‍थ, मजेदार और बेहतर मनुष्‍य होते हैं.

जब भी ऐसा कष्‍ट हो, जिससे मन दुखी हो गया हो. भीतर घुटन बढ़ गई हो तो रोने से परहेज नहीं करना चाहिए. किसी ऐसे सखा/सखी का चुनाव कीजिए, जिसके सामने मन के बंधन खोलने में शर्मिंदगी न हो. अगर आपके समीप कोई ऐसा नहीं है तो उसे तलाशिए. फिर भी न मिले तो मनोचिकित्‍सक के पास जाइए. वह आपको अपनी भावना व्‍यक्त करना सिखाएंगे. यह हमारे मनुष्‍य बने रहने की दिशा में सबसे जरूरी काम है.

हमारी एक मित्र हैं. जिनके ठहाके घर के बाहर तक सुनाई देते हैं. सहज संवाद में भी उनकी हंसी की गूंज दूर तक रस घोलती है. अपनी हंसी के लिए वह खासी लोकप्रिय हैं. वह जितनी खुशमिजाज हैं , उतनी ही भावुक भी. अगर ऐसा कुछ भी हो जो उनके मन को चुभा हो तो वह आंसू नहीं रोक पातीं.